टूट गई… जो परमशुभानुभूति है वो अशुभ का निर्माता नहीं हो सकता!!! ये तय है!!! ईश्वरवादियों के इस तर्क में अभिनंदन पूर्ण तर्कना विद्यमान है।
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टूट गई … जो परमशुभानुभूति है वो अशुभ का निर्माता नहीं हो सकता!!! ये तय है!!! ईश्वरवादियों के इस तर्क में अभिनंदन पूर्ण तर्कना विद्यमान है।
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इसलिए उनके जैसा तर्कना बुद्धि वाला व्यक्ति भी कई बार उन अंधविश्वासी बयानों को स्वीकार कर लेता है, जिनसे समाज को गुलाम बनाने वाली बीमारियां दूर होती हैं।
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तर्कना और स्वतंत्रता की संयुक्त प्रणाली में प्रबोधन सिध्दांत और इस सिध्दांत में निहित दो अन्य प्रमुख सिध्दांतउदारवाद और समाजवाद ' विश्व की और हमारी पर्याप्त व्याख्या कर पाने में लगभग विफल हो गए हैं।
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अतएव यह चाहना तर्कना के तल पर न आने से भी कमजोर नहीं हुई होगी, बल्कि अधिक दुर्निवार ही होगी-वैसे ही जैसे समुद्र की सतह की छालियों से कहीं अधिक दुर्निवार प्रवाह नीचे की धाराओं (Currents) में होता है।
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पंगु सारी तर्कना, विखण्डित कल्पना! अनिश्चित की शिलाओं तले रोपित प्रश्न!. सूत्राभाव पूर्व...उत्तर...सर्वत्र ठहराव!. यह कश-म-कश और कब तक? विवश मनःस्थिति और कब तक? और कब तक ओढ़े रहोगे प्रश्न? उलझी ऊबट सतह पर।.
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यदि मिलस के अनुसार उनके युग की प्रमुख समस्या यह थी कि प्रसन्नचित्त यंत्रमानवों में स्वतंत्रता अथवा तर्कना की शक्ति होने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, तो नव उत्तरआधुनिकतावादी स्वयं भी उन्हीं अभिवृत्तियों को प्रदर्शित करते हैं जिनकी मिलस ने निंदा की थी।
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मानस की व्याख्या करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि-कुछ विषय आन्तरिक अनुभूति के क्षेत्रा में आते हैं और कुछ दूसरे विषय बाह् य वस्तुओं की सामन्जस्य विधायिनी तर्कना के क्षेत्र में परन्तु सर्वत्रा एक ही वस्तु दोनों को समझती और प्रकाश करती है-मनुष्य की बुद्धि।
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उदाहरण के लिए सी. राइट मिलस ने इस बात पर बल दिया कि तर्कना और स्वतंत्रता के संकट, जिससे उत्तरआधुनिक युग का आरंभ हुआ ' संरचनात्मक समस्याएं ' दरशाते हैं और उन्हें व्यक्त करने के लिए आवश्यक है कि हम युगपरक इतिहास तथा मानव जीवन चरित के पुराशास्त्रीय अर्थ में काम करें।
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भावार्थ:-जिनको मन सहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते, जिनकी महिमा को वेद ' नेति ' कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानंद) तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं, ॥ 4 ॥