स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास साठोत्तरी पीढ़ी से शुरू होता है और यह परिवर्तन उससे पहले के साहित्य तथा साहित्यकारों को नकार कर या उनकी तिरस्कारपूर्वक उपेक्षा कर होता है।
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' महात्मा ने तिरस्कारपूर्वक उस सारी सामग्री को देखा और राजा से बोले, ' अरे मूर्ख यह सब कुछ मुझे नहीं चाहिए, तू ही इन्हें अपने पास रख और यहाँ से चला जा।
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सरसंघचालक ने सरकार की गलत नीतियों का ध्यान दिलाते हुए कहा, एक के बाद एक देश के उत्पादन के क्षेत्रों का स्वामित्व अपने देश के लोगों की तिरस्कारपूर्वक उपेक्षा कर विदेशी हाथों में देनेवाली नीतियां चलाई जा जा रही हैं।
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जो लड़ाई-झगड़ा करते हुए तैयार किया गया हो, जिसको किसी ने लाँघ दिया हो, जिस पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि पड़ गयी हो, जिसमें बाल या कीड़े पड़ गये हों, जिस पर कुत्ते की दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न राक्षसों का भाग है।
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जो लड़ाई-झगड़ा करते हुए तैयार किया गया हो, जिसको किसी ने लाँघ दिया हो, जिस पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि पड़ गयी हो, जिसमें बाल या कीड़े पड़ गये हों, जिस पर कुत्ते की दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न राक्षसों का भाग है।
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इस आंदोलन को जब देश के कोने कोने से जन समर्थन मिलने लगा तो राजनीतिज्ञों के कान खड़े हुए और पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री श्री ओम प्रकाश चौटाला तथा बाद में मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने मंच पर जाने का प्रयास किया लेकिन अन्ना हज़ारे और उनके समर्थकों ने इसे गैर-राजनीतिक बनाए रखा और उपरोक्त राजनीतिज्ञों को लगभग तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया।
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मुझे लगा, मानो किसी ने मेरे कान में फुसफुसा रहे थे, कि प्रकृति की दया से भरा है, वह अभी भी परोपकार के प्रचुर मात्रा में है. सी. एक बार कहा था: “निराश मत हो, यदि आप एक हजार मामलों में लगता है तुम्हारी दया को अस्वीकार कर दिया और गलत, अपने अच्छे बुरी बात है, और हाथ आप दूसरों के राहत के लिए विस्तार, तिरस्कारपूर्वक दूर डाली;
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सर्ग 21-एथनी द्वारा पिनीलोपी को स्वयंवर का सुझाव-ओडेसियस का विशाल धनुष जो चढ़ा सकेगा, उसी का वह वरण करेगी-इस सुझाव को सुनकर अनेक कुमारों द्वारा धनुष चढ़ाने की चेष्टा, परन्तु सभी असफल-ओडेसियस द्वारा भिखारी के रूप में सारी घटना का पर्यवेक्षण एवं धनुष की माँग-कुमारों ने तिरस्कारपूर्वक मजाक समझकर धनुष दे दिया-ओडेसियस ने अपने पुत्र को संकेत दिया।
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सरदार को एकाएक गुस्सा चढ़ आया ; उस ने तिरस्कारपूर्वक कहा, '' रहने दीजिए, बाबू साहब! अभी आप ही जैसे रस ले-ले कर दिल्ली की बातें सुना रहे थेअगर आप के पास छुरा होता और आप को अपने लिए ंखतरा न होता, तो आप क्याअपने साथ बैठी सवारियों को बंख्श देते? इन्हेंया मैं बीच में पड़ता तो मुझे? '' हिन्दू महाशय कुछ बोलने को हुए पर हाथ के अधिकारपूर्ण इशारे से उन्हें रोकते हुए सरदार कहता गया, '' अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिए कान खोल कर।