इसकी कमियों को दूर करने के लिये फौजदारी (दूसरा संशोधन) अधिनियम १९८६ के द्वारा, मुख्य तौर से निम्नलिखित संशोधन किये गये हैं:भारतीय दण्ड संहिता में धारा ४९८-क जोड़ी गयी;साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क, यह धारा कुछ परिस्थितियां दहेज मृत्यु के बारे में संभावनायें पैदा करती हैं;दहेज प्रतिषेध अधिनियम को भी संशोधित कर मजबूत किया गया है।
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आपकी इन दोनों पोस्ट से मुझे मेरे और भी कई सवालों के जवाब मिले हैं हालाँकि पहले वाले सवाल को लेकर शायद आपको कुछ गलतफहमी हुई हैं 7 वर्ष की अवधि से मेरा मतलब उस अवधि से था जिसमें विवाहिता की संदिग्ध मृत्यु पर दहेज मृत्यु का केस बन सकता है इसे बढाया जा सकता है.
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जहां तक मृतका की असामान्य स्थिति में मृत्यु एवं उससे ठीक पूर्व दहेज की मांग करने का सम्बन्ध है, इसमें हालांकि यही उपधारणा की जाती है कि सात वर्ष के भीतर अगर किसी महिला की असामान्य मृत्यु होती है और उससे ठीक पूर्व दहेज की मांग की गई हो तो इससे दहेज मृत्यु की उपधारणा की जाती है।
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धारा 113बी में यदि भौतिक एवं परिस्थितिजन्य साक्ष्यों द्वारा यह प्रमाणित हो जाता है कि स्त्री की अस्वाभाविक मृत्यु के पूर्व मृत स्त्री के पति या उसके रिश्तेदार दहेज प्राप्त करने के लिए मृत स्त्री को प्रताड़ित करते, उत्पीड़ित करते, सताते या अत्याचार करते थे तो न्यायालय स्त्रीकी अस्वाभाविक मृत्यु की उपधारणा कर सकेगा अर्थात दहेज मृत्यु मान सकेगा।
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धारा 304-बी भा0द0वि0 के अनुसार, "जहॉ किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है और यह दर्शित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने, दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके सम्बन्ध में, उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था, वहॉ ऐसी मृत्यु को" दहेज मृत्यु "कहा जाएगा, और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जायेगा।