और जल-प्लावन का पूर्वज्ञान, अतुलित विस्तार से विवर्धन तथा समुद्र में नौवाहन आदि अतिमानुषिक कार्य भी सवाचर््ेच दवैीशक्ति पज्र ापति के द्वारा ही सभंव हैं महाभारत में इस कथा का जो रूप है, उसके अनसु ार चीरिणी नदी के तट पर स्नान करते हुए वैवस्वत मनुके हाथों में एक छोटा-सा मत्स्य आ जाता है और दीनतापूर्वक मनु से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करता है-भगवन्! मैं एक छोटा सा मत्स्य हूं।
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जनक कहते हैं कि जिस पद की लालसा इन्द्र आदि देवता दीन बनकर किया करते हैं, उस पद पर स्थित होने पर भी योगी हर्ष आदि सुख-भावों से उत्प्रेरित नहीं होते यानि कि वे सामान्य ही बने रहते हैंद्ध उनके मन में हलचल नहीं दीख पड़ती…यस्पंद प्रेप्सयो दीनाः शक्रादया सर्वदेवताः /अहो तत्त स्थितौ योगी न हर्षमुपगच्छति… अर्थात् इन्द्र आदि देवता जिस 'आत्मपद' को पाने की दीनतापूर्वक इच्छा किया करते हैं और उस 'आत्मपद' को नहीं पा सकने पर शोक करते हैं, उसी 'आत्मपद' में स्थित योगी हर्ष आदि को प्रकट नहीं करता यानि निर्विकार बना रहता है।