अरुंधती राय अक़्सर भारत सरकार के प्रति आलोचनात्मक रही हैं, जो अपना व्यवसाय बदलने की वजह से भारत सरकार के लिए एक दु:स्वप्न बन गयी हैं।
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रोटी, कपड़ा, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, बिजली, पानी, जमीन, ये सारी की सारी चीजें आज भी दलितों के लिए दु:स्वप्न हैं, ऊपर से छुआछूत की मार अलग से।
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वे यह नहीं कहती हैं कि उन्हें इस बात का अंदाजा है कि केट कैसा अनुभव करती हैं, लेकिन उन्हें अहसास है कि समूचा परिवार किस तरह के दु:स्वप्न से गुजर रहा है।
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उस घटना को घटे करीब अठारह साल बीत चुके है, और उस इलाके के उन कुछ लोगो के लिए आज भी यह एक खौफनाक दु:स्वप्न जैसा है, जो उस घटना के चश्मदीद गवाह थे।
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[59] कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन समाजों में नींद एक दु:स्वप्न है जहां नींद दो अवधि के बीच में टूट जाती है, पहला हिस्सा गहरी नींद का होता है और दूसरा हिस्सा
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जहां हम अपने 65वें स्वतंत्रता दिवस की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं यह भी लगता है कि स्वतंत्रता की मध्यरात्रि में हमारे पितृपुरुषों द्वारा देखे गए स्वप्न तेजी से दु:स्वप्न में बदलते जा रहे हैं।
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क्योंकि मैं तो पूरी पूरी रात जगा रहता हूं और न केवल दु: स्वप्न देखता हूं, बल्कि यह तक देखने लगता हूं कि दु:स्वप्न कितने समय तक मुझी को देखते रहने की मुस्की काट रही है..
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क्योंकि आम तौर पर तो कम ही अपनी मां की असल औलाद होंगे जिनके हो सकता है ब्लैडर की गति में अवरोध बना रहता होगा, मगर दु:स्वप्न जीवन में सुभीते से ही चले आते होंगे.
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तो पहले सवाल का जवाब तो अभी नहीं दिया जा सकता, केवल ईश्वर से प्रार्थना की जा सकती है कि यह डर सिर्फ एक दु:स्वप्न सिद्ध हो, पर दूसरे सवाल का जवाब डराने वाला है।
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“जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडतें. एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहतें हैं.