आज जब फासिज़्म एक बार फिर हमारा दरवाज़ा खटखटा रहा है, तो ऐसी भीषण परिस्थिति में देश के धूर्त शासक वर्गों के पतित सत्ता-तन्त्र की हर तरह की दुरभिसन्धि के विरुद्ध और भी धारदार प्रतिवाद और प्रतिरोध के लिये सभी जनपक्षधर मित्रों एवं अधिकतम साथियों की एकजुटता ही आज के इस कठिन दौर में हम सब के सामने इतिहास द्वारा प्रदान किया गया सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार है।
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लोक-लाज के कारण बुरे कार्यों से बचे रहने और सत्कर्म करने के फलस्वरूप लोक-सम्मान का सुख मिलने की इच्छा एक सीमा तक उचित है, पर जब उच्छृंखल हो उठती है, तो अवांछनीय उपाय सोचकर उच्च पदवी पाने की लिप्सा उठ खड़ी होती है, तब सम्मान के वास्ते अधिकारियों को एक और धकेल कर उनका स्थान स्वयं ग्रहण करने की दुरभिसन्धि की जाने लगती है ।।
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यह कविता इसलिए भी ध्यान खींचती है, क्योंकि यह आदमी-आदमी के बीच दरार पैदा करने वाले तीनों तत्वों-वर्ग, धर्म और वर्ण-की प्रचालन शक्ति की दुरभिसन्धि को खोल कर सामने रख देती है, जहां साम्प्रदायिकता और जातिवाद के कुलाबे एक-दूसरे से मिलते नज़र आते हैं और ऐसा तफ़रका पैदा करते हैं जिसे वर्ग और पेशे की एकता भी मिटा नहीं पा रही है.