आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क-चारों तरफ खाली बेंचें-मैं आपके पास ही क्यों धँसना चाहती हूँ? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूँ-जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है।
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' कवि को सभी समस्याओं का समाधान जन सामान्य की जीजिविषा में ही नज़र आता है, वह संवेदना के धागे को इतना महिन कातता है कि उसमे से चमकने लगता है समय वकर वरक, ‘ धँसना तो होगा ही जन अरण्य में, समा जाना होगा उसमें, क्योंकि वहीं से मिलेगा अभेद्य कवच, और वहीं से जगेगी जीने की ललक ।
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खिड़की से अचानक बारिश आई एक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया दरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजाया उसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गए वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी स्कूल जानेवाले रास्ते पर
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पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता अरुण कमल एक ले जाने उसको धँसना ही होगा झील के हिम-शीत सुनील जल में चाँद उग गया है गलियों की आकाशी लंबी-सी चीर में तिरछी है किरनों की मार उस नीम पर जिसके कि नीचे मिट्टी के गोल चबूतरे पर, नीली चाँदनी में कोई दिया सुनहला जलता है मानो कि स्वप्न ही साक्षात् अदृश्य साकार।