जैसे छाती में कोई तार अटका कर खींच ले गया हो, वहाँ जहाँ अँधेरे में छिटपुट जुगनू सी रौशनी थी, फुसफुसाहटों की दुनिया थी और बहुत कुछ था, न समझने वाला बहुत कुछ ।
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पुरुषों का आज भी वेश्याओं के पास जाने को किसी भी प्रकार की अनहोनी घटना न समझने वाला विजय बड़े गर्व से अपने युवा मित्र के द्वारा अड़तालीस स्त्रियों के साथ शारीरिक संपर्क की बात करता है और जब सुकीर्ति उसे ‘
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लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि समग्र विश्व को चिरंतन मार्गदर्शन दे सकने में समर्थ इस संस्कृति की महानता को न समझने वाला आज का भारतवासी अपने प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए विश्व भर में भटकता फिर रहा है.
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आरण्यक का नायक भीमाराव समाज, धर्मों के तथाकथित झंडाबरदारों के अन्याय, शोषण और दुष्चक्रों के खिलाफ कमर कसता है, समझौते की भाषा न समझने वाला भीमा एक-एक कर समाज के सभी प्रभावी पात्रों के मुखौटों में जाता है, पर अंतहीन महाभारत के अभिमन्यु की तरह अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाता है।
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दस मिनट के भाषण के बाद उसको समझ आ गई कि उसके परिवार के सदस्यों के रंग दबे होने के पीछे, कद-सेहत आदि हमारे मुकाबले उन्नीस होने की एक ही वजह है कि उन्हें संतरे के बीजों के गुण नहीं मालूम और वो मलयगिरी के भीलों की तरह चंदन का मूल्य न समझने वाला काम कर रहे हैं।
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दस मिनट के भाषण के बाद उसको समझ आ गई कि उसके परिवार के सदस्यों के रंग दबे होने के पीछे, कद-सेहत आदि हमारे मुकाबले उन्नीस होने की एक ही वजह है कि उन्हें संतरे के बीजों के गुण नहीं मालूम और वो मलयगिरी के भीलों की तरह चंदन का मूल्य न समझने वाला काम कर रहे हैं।
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पुरुषों का आज भी वेश्याओं के पास जाने को किसी भी प्रकार की अनहोनी घटना न समझने वाला विजय बड़े गर्व से अपने युवा मित्र के द्वारा अड़तालीस स्त्रियों के साथ शारीरिक संपर्क की बात करता है और जब सुकीर्ति उसे ‘पुरुष वेश्या ' कहलाना अधिक उपयुक्त समझती है, तब भी विजय के पुरुषों के पक्ष में अपने तर्क हैं:
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जो खेत, हल चलने से दुखी हो जो पत्थर, छेनी और हथोडी की मार से रोने लगे वो कभी मूर्ति का रूप नहीं ले सकता जो खेत, हल चलने से दुखी हो वो कभी अनाज पैदा नहीं कर सकता बिलकुल वैसे ही माता पिता और शिक्षक की डाट-मार को न समझने वाला कभी सफल नहीं हो सकता.... सच्ची माँ वाही है जो अपने बेटे के एबो में हुनर देखती है
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परमसत्ता में आस्तिकता की भावना उस व्यक्ति में अधिक देखी जा सकती है अथवा विषेष रुप से उस वर्ग में अधिक होती है जहां जोखिम भरा जीवन अधिक होता है अथवा जहां तमाम भौतिक उपलब्धियों, क्रम-उपक्रमों केे बाद भी जीवन में हताषा ही हाथ लगती है और बात जब किसी के जीवन अथवा मरण पर आने लगती है तब तो अनंत से परे न समझ में आने वाली दिव्य शक्ति की दिव्यता को न समझने वाला कट्टरपंथी नास्तिक भी हताष होकर मानने को लाचार हो जाता है और दीन हीन बन कर उससे अपेक्षाएं करने लगता है।