परिणाम यह हुआ कि मार्क्स वाद में वे सभी जड़ताएं, टोटम और विकार घर करते गए, जो परंपरागत धर्म के क्षरण का कारण बने थे या जिनके कारण धर्म रूढ़िवाद का शिकार होकर जीवन से पलायनोन्मुखी बन जाता है.
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क्योंकि उनके नज़रिए में परंपरागत धर्म उनके समय की ज़रूरतों को पूरा करने में असफल हो रहा था, 1933 के हस्ताक्षरकर्ताओं ने एक ऐसे धर्म की स्थापना को एक बड़ी जरूरत घोषित किया जिसमें वक़्त की ज़रूरतों को पूरा करने की गत्यात्मक शक्ति हो.
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हम सब जानते हैं कि धर्म और ज्ञान के नवीकरण का दूर तक संबंध नहीं है, ज्ञान की खोज का सिलसिला संदेह से आरंभ होता है ; और संदेह धर्म की निगाह में ‘ पाप ' है. परंपरागत धर्म में संदेह के लिए कोई स्थान नहीं है.
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मैं इस कानून के समर्थक लकीरों के फकीरों से पूछना चाहता हूँ कि जब मुहम्मद साहब ने इस्लाम की घोषणा की थी तो क्या उनका यह कदम परंपरागत धर्म के खिलाफ नहीं था? जब मुहम्मद साहब ने परम्पराओं को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार ढालने में भारी विरोध के बावजूद हिचक नहीं दिखाई तो फ़िर आज उनके बनाए नियमों में बदलाव करने में हिचक क्यों? धर्म को मानव ने बनाया या धर्म ने मानव को?