ग्रन्थों का निष्कर्ष अपने आग्रहों पर आधारित करना भला कहाँ का न्याय हुआ? गीता के ७ ०० श्लोकों पर हजार से ऊपर टीकायें, प्रत्येक में एक नया ही अर्थ निकलता हुआ, सत्य हजारमुखी कब से हो गया? यह सत्य है कि सत्य के कई पक्ष हो सकते हैं, पर दो सर्वथा विलोम पक्ष एक सत्य को कैसे परिभाषित कर सकते हैं?