कुछ की समझ में यह निरा आडम्बर है और भीतर के शून्य को छिपाता है जैसे प्याज का छिलका पर छिलका।” मैं साक्षी हूँ कि अज्ञेय को इन सब प्रतिक्रियाओं से बहुत क्लेश होता रहा है।
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अब चुप बैठी है, भगवान् करे तुम्हें रोने के नकली आंसू निकालने को प्याज का छिलका भी न मिले, मरने के बाद तेरे किसी भी संस्कार में प्याज नसीब न हो, अरे क्यों नहीं लाती …………… चला दे “ प्याज क्रान्ति ” आनियन रिवोल्यूशन ” फिर देख तमाशा जनमत का. भारत देश को एक “ प्याजी क्रान्ति ” की दरकार ………