चमकी हथकड़ियां और बना दी गई चूड़ियाँ बन गई पाँवों की बेड़ियाँ पायज़ेब बना दी गई नाथ की डोरी नथुनी गले की फाँद बन गई हार माथे पर टीका ठीक वैसे ही जैसे बलिपशु के माथे पर्।
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उपन्यासकार ने उक्त देवोत्सव को रेशारेशा बयान किया है ताकि पाठक यह जान सकें कि किस तरह पहाड़ी समाज में आज भी ऐसे मुकाम हैं जहां आदमी से खुद उसके सामाजिकों द्वारा एक बलिपशु का-सा बर्ताव किया जाता है।