नीरज जी बेहद ख़ूबसूरत मतले से इस ग़ज़ल की शुरूआत हुई और रफ़्ता रफ़्ता आब ओ ताब बढ़ते बढ़ते मक़ते तक पहुंची, हर बार जब दस्तक हुई उठ कर गया, कोई न था तुझको कसम, मत कर हवा, आशिक से ऐसी दिल्लगी परंपरागत ग़ज़ल के तक़ाज़ों को पूरा करता हुआ नाज़ुक शेर फ़ाक़ाजदा इंसान को तुम ले चले दैरोहरम पर सोचिये कर पायेगा ‘नीरज' वहां वो बंदगी? ये शेर इस बात की तस्दीक़ करता है कि कभी कभी हालात ही हमारे हर अमल के कारण बन जाते हैं बहुत ख़ूब!