याद है न वे क्या कहते हैं-' अति सूधो सनेह को मारग है यहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं ' ।
22.
कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन में अंसुवान को लै बरसौ अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
23.
कहो वाङ्चू जी, ' फाँक '! ' उसने नीलम की ओर खोई-खोई आँखों से देखा और बोला, ' बाँक! '
24.
कविवर घनानंद ने प्रेम की अनूठी परिभाषा बताई है-अति सूधो सनेह को मारग है / जहँ नैकु सयानपन बाँक नहीं/ तहँ साँचे चलैं तजि आपनपौ/ झिझकैं कपटी जे निसांक नहीं।
25.
वही दूसरे कुछेक रीतिमुक्त कवियों में संस्कृतनिष्ठता से अलग भी चला गया है, यह बात “अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं” की सहजता लिये हुये है।
26.
ये हैं-सागर मुद्रा (१९७१), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (१९७४), महावृक्ष के नीचे (१९७७), नदी की बाँक पर छाया (१९८२) और ऐसा कोई घर आपने देखा है (१९८६) ।
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वही दूसरे कुछेक रीतिमुक्त कवियों में संस्कृतनिष्ठता से अलग भी चला गया है, यह बात “ अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं ” की सहजता लिये हुये है।
28.
आज्ञा चक्र की विरल उपलद्भियों में पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे और नदी की बाँक पर छाया है, और उनक महत्तम आयास-सहस्रार चक्र की उपलब्धि जैसा की नाम से ही स्पष्ट है-वह है 'ऐसा कोई घर आपने देखा है “।
29.
मुझे याद है 1982 ई॰ की गर्मियों में मैं जब उसके साथ लम्बे समय तक जे॰एन॰यू॰ के पेरियार हॉस्टल में था, तब उसने अज्ञेय के कविता-संग्रह ' नदी की बाँक पर छाया ' पर एक अद्भुत समीक्षा लिखी थी, जो ' आजकल ' में छपी थी।
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आज्ञा चक्र की विरल उपलद्भियों में पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे और नदी की बाँक पर छाया है, और उनक महत्तम आयास-सहस्रार चक्र की उपलब्धि जैसा की नाम से ही स्पष्ट है-वह है ' ऐसा कोई घर आपने देखा है “ ।