शर्मा जी बुरुंश, कहीं वो फूल तो नहीं जिसे हम अपनी पहाड़ी भाषा में बुरांश कहते हैं.
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कोलाहलपूर्ण नदियों वाली हरी घाटियां बेशुमार वन्य जीवन से भरपूर बुरुंश के जंगल देखते ही बनते हैं।
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सीखा होता तो क्यों वर्षों से यह बुरुंश मुझे सताता मेरे सपनों में भी बिन फूलों बिन रंगों के आता?
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जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ः मेरी कविता के स्वर बांज, बुरुंश के झुरमुटों में गायों के संग ग्वाला बन कर फूटे।
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इस होली में बुरुंश के लाल फूलों से तेरी मांग सजा दूँ और अपनी पूरी जिन्दगी तुझे समर्पित कर दूँ।
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शाहबलूत, चीड़ देवदार, मेपल, देवदारू, नीला देवदार, विषमय वृक्ष, स्प्रूस और बुरुंश की विभिन्न प्रजातियां जंगल की मुख्य प्रजातियां हैं।
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काश, यह आर्द्रता आँखों की सोख लेता फूल बुरुंश का लगता कि उसने माफ़ किया हिमालय की इस परित्यक्त बेटी को।
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प्रचुर अभयारण्यों, उद्यानों, आरक्षित आखेट-क्षेत्रों, ओक, देवदार और बुरुंश वनों तथा विस्तृत सेव बागानों से भरा हिमाचल प्रकृति-प्रेमियों के लिए स्वर्ग है।
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मैंने सुश्री महादेवी वर्मा के लेख प्रणाम, जो कि गुरुदेव रविंद्रनाथ को समर्पित है, में भी बुरुंश का उलेख पाया है.
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सीखा होता तो यह बुरुंश मुझे क्यों सताता.... सच है कि भावनाएं नहीं होती जिनमे ज्यादा खुश और सुखी होते होंगे...!