वैसे अपने वास्तविक और आरम्भिक अर्थों में बूर्जुआ मध्य कालीन यूरोपीय शहर के ÷मुक्त निवासियों ' ;थ्तमम त्मेपकमदजेद्ध के लिए प्रयुक्त होता था।
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या तो वे खुद बूर्जुआ बनने का प्रयत्न करें या अपने-आप को धीरे-धीरे परास्त हो जाने दें या विद्रोह का मार्ग अपनायें।
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तथापि, बूर्जुआ इस अभिव्यक्ति पर अपने स्वयं का बल लगाते हैं, 'शराब' को एक नया वाचक बनाते हुए, इस बार एक नई अभिव्यंजना से संबंधित:
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÷ऐतिहासिक रूप से बूर्जुआ वर्ग ही आगे चल कर मध्यवर्ग के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि यह वर्ग जमींदार और मजदूरों के बीच का था।
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लेकिन विद्रोह के बाद जब नयी समाज व्यवस्था कायम करने की बात चली तो शासन सूत्रा संभालने और नीति नियम निर्धारण में बूर्जुआ वर्ग ही सामने आया।
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उसके प्रतिकार में युवा मार्क्सवादी विचारक मुराद सैफुलिन कहता है कि यह सारी विडंबना पश्चिम के बूर्जुआ देशों और उनके अनुयायियों के लिए है, उन्हीं का रची है।
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बूर्जुआ संसदीय जनवाद और सोशल डेमोक्रेसी की अन्धी गली से बाहर निकले बगैर किसी भी सार्थक परिवर्तन की बात करना या तो पाखण्ड है या हद दर्ज़े की नासमझी।
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यही दौर था जब बूर्जुआ मनोवृति को श्रम द्वारा बदलने के नाम पर जबर्दस्ती श्रम करने के लिए बनाये गये श्रम शिविर या यातना शिविरों का भी सिलसिला शुरू हुआ।
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फ्रांसीसी क्रांति की जमीन जिन दिनों विकसित हो रही थी उन्हीं वर्षों में सबसे पहले बूर्जुआ पद से अलग हट कर मध्यवर्ग पद का प्रयोग पहलेपहल होने के प्रमाण मिलते हैं।
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भारत का बूर्जुआ तबका, जो जाति के हिसाब से हिन्दू-मुसलामानों का सवर्ण-असराफ तबका भी था, अंग्रेजों से विमुक्तता को ही आजादी मान कर संतुष्ट था-क्योंकि भारत का राज-पाट अब उसके जिम्मे था।