मैं मानता हूँ कि कई बार इन ब्लॉगों को लिखते समय मैंने बहुत ही सीधा और प्रत्यक्ष तरीके से बात किया है और कभी कभी मैं भावुक हो गया लेकिन एक बात जो मैं नहीं चाहता के लोग गलत समझें वो ये है के मैं नफरत और पाठक की समूह के ओर क्रोध से प्रेरित नहीं हूँ लेकिन मेरी लड़ाई उन संस्थाओं से है जिन्होंने मतारोपण की इन मान्यताओं को शामिल किया है.
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जब शिशुओं का जन्म होता है उनमें से किसी का भी कोई धर्म नहीं होतां वे सब एक समान होते हैं दो वर्ष पश्चात भी वे वैसे ही होते है-स्वार्थी और झगड़ालूं परंतु जैसे-जैसे समय बीतता है, उनके माता-पिता उनमें विभिन्न धर्मों का मतारोपण कर देते है-और इस तरह वे विभिन्न धर्मों में बँट जाते हैं 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में किसी व्यक्ति का धर्म वही होता है जो उसके माता-पिता उसके लिये चुनते हैं