समरथ को नही दोष गोसाईं की पंक्तियां व्यवस्था में मत्स्य न्याय जैसी स्थिति की तरफ संकेत करने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं।
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यह मनुष्य द्वारा जंगली जीवन से बाहर आकर मत्स्य न्याय की आदिम प्रणाली का त्याग करके उच्च मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज विकसित करने की कहानी है।
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मत्स्य न्याय के स्थान पर प्राकृतिक न्याय अर्थात जितना जिसका अधिकार है, उतना उसको सही-सही मिल जाए, बस इसी व्यवस्था को स्थापित करना ही उसका मुख्य उद्देश्य था।
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अगर केंद्र ऐसा नहीं कर सकता तो इस अधिनियम को निरस्त कर दे जिससे जो मत्स्य न्याय का नियम पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रहा है उसे वैधानिकता प्राप्त हो सके.
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पारे का पारावार मछलियाँ सोने की था मत्स्य न्याय का लोहे जैसा अहंकार निर्मल अकाट्य था अष्टधातु का तर्क और मरकतमणि के गहरे प्रवाल के जंगल थे, जंगल में आँखें रह-रहकर जल उठतीं थीं फास्फोरस की
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इस घटना ने भी यह साबित किया है कि चाहे हम कितने भी कथित सभ्य समाज और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से संपन्न दुनिया में रह रहे हों, लेकिन यह एक प्रकार से ' मत्स्य न्याय ' की तरह ही है।
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इसे उसकी दुर्बलता समझा गया और दुर्बलों के साथ बलवानों द्वारा जो मत्स्य न्याय अपनाया जाता है, वैसा ही व्यवहार नारी के साथ किया गया यह आम शिकायत है भारत में प्रतिबंधित और पद दलित स्थिति में उसे रखा और दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है।
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“ असल में न ‘ मत्स्य न्याय ' जल में चलता है और न ‘ जंगल का कानून ' जंगल में ; ये दोनों मानव समाज में और खासकर वर्तमान औद्योगिक समाज में चलते हैं और मनुष्य अपने आपसी सम्बन्धों को जल या जंगलों पर आरोपित करता है ।
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जिस देश समाज की भाषा ही चरित्रहीन और भ्रष्ट हो जाए वह देश या समाज भ्रष्टाचार से क्या लड़ेगा? मिशाल देखिये-राजा ने मंत्री से कहा “ छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाए तो क्या हुआ? ” चाटुकार मंत्री ने चतुर उत्तर दिया “ मत्स्य न्याय ”.
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राज्य की कल्पना ही इसीलिए की गयी कि मत्स्य न्याय या जंगल के कानून को रोका जाए तथा ऐसी न्यायिक व्यवस्था कायम की जाए, जिसमें शेर-बकरी दोनों एक घाट पर पानी पी सकें, यानी कमजोर व्यक्ति के भी अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके और प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग का सबको समान अधिकार मिल सके ।