मैं सोच रहा था कि यों होने को लंदन का हाईड पार्क भी है और वहां का ही बुलावा हो तो कैसा अच्छा रहे? विदेश की सैर भी हो जायेगी लेकिन यह सब मन के लड्डू हैं, फीके क्यों रहें।
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साथ ही इसके एक बात का फायदा और भी होगा, अर्थात् कैदियों के पक्षपाती लोग भी, जो ताज्जुब नहीं कि इस समय भी कहीं इधर-उधर छिपे मन के लड्डू बना रहे हों, समझ जायेंगे कि अब उन्हें दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं रही और न ऐसा करने से कोई फायदा ही है।
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चल-लुच्ची ऐसी दशा शत्रु की होय-मैं तो उसे उसी दिन वर चुकी जिस दिन उस का आगमन सुना और उसी दिन उसे तन मन धन दे चुकी जिस दिन उस का दर्शन दिया, इस से अब प्राण कहां रहा और विचार का क्या काम है? ही. मा.: पर मन के लड्डू खाने से तो काम नहीं चलेगा।