हम जैसे लोग चाहते तो यही थे कि जनेश्वर जी मूर्ति भंजक ही बने रहते और मठी स्थापनाओं के खिलाफ सिविल नाफरमानी का झंडा लिये वह अपने गुरू लोहिया से भी आगे निकल गये होते-लेकिन वह कर्महीन बौद्धिक हो चुके थे और यह भी कि लोहिया से लेकर रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और विजयदेव नारायण शाही तक को समझने के विकसित नजरिये की खिड़की भी।