अर्थात सातवीं और दशवीं शताब्दी के बीच में प्राचीन वर्ण-भेद जाता रहा और स्थिति तथा कार्य के अनुसार एक नवीन वर्ण प्रचलित हो गया।
22.
दलितों पर अत्याचार और वर्ण-भेद का व्यवहार, महिलाओं पर अत्याचार और लिंग-भेद का व्यवहार, आदिवासियों का विस्थापन और उनका उत्पीड़न निरंतर जारी ही नहीं रहा, बढ़ता गया।
23.
नस्ल भेद, वर्ण-भेद “एपार्थिड”, कुण्ठा से ग्रस्त, अस्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति कौन सा जघन्य कार्य नहीं कर सकता यह इस कथा को पढ़कर जाना जा सकता है।
24.
लिंग-भेद और वर्ण-भेद से उबर आने वाले लोग ही वास्तव में शोभायमान होते हैं, श्री के धनी होते हैं, कर्म के मूर्त रूप होते हैं।
25.
तीसरी बात यह कि ये जो वर्ण-भेद हुए वह स्वभाव तथा क्रिया (काम) की विभिन्नता एवं शरीर के रंग (वर्ण) की विभिन्नता से ही।
26.
इसीलिए एक ओर संसार का काम, दूसरी अरे संसार के काम की परिणति, दोनों को मानकर ही हमारे समाज में वर्ण-भेद की अर्थात् वृत्ति-भेद की स्थापना हुई।
27.
दलितों पर अत्याचार और वर्ण-भेद का व्यवहार, महिलाओं पर अत्याचार और लिंग-भेद का व्यवहार, आदिवासियों का विस्थापन और उनका उत्पीड़न निरंतर जारी ही नहीं रहा, बढ़ता गया।
28.
डा. बच्चन सिंह 'हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास' में भक्तिकाल के अध्ययन के अन्त में लिखते हैं कि वर्ण-भेद के आधर पर ही भक्ति-आन्दोलन की इतिहास सम्मत व्याख्या संभव है।
29.
किंतु मेरा प्रश्न यह है कि जिस उद्देश्य से आप समाज में वर्ण-भेद का चलन शुरू हुआ मानते हैं, उस उद्देश्य को क्या सफल होता देख रहे हैं? ''
30.
नस्ल भेद, वर्ण-भेद “ एपार्थिड ”, कुण्ठा से ग्रस्त, अस्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति कौन सा जघन्य कार्य नहीं कर सकता यह इस कथा को पढ़कर जाना जा सकता है।