अरे अर्विंद जी आप भी ना इस जील की वास्त्विकता ही किसी को मालूम नही, फ़िर भी उसे क्यो तुल दे रहे है, जो मुंह छुपा कर बात करे उस से क्या बहस....
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मित्रों के साथ पिता की बातचीत का जो अर्थ वह लगाती है, वह स्वाभाविक है लेकिन अंत में लेखक जिस नाटकीयता से मित्रों के साथ पिता की बातचीत की वास्त्विकता प्रकट करता है, वह न केवल युवती को झकझोर देता है बल्कि उसके प्रति संवेदनशील हो उठा पाठक भी हिल उठता है।
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वास्त्विकता यही है कि उत्साह में कुछ पल भले ही अकेले प्रसन्न्तादायक प्रतीत हों किन्तु दीर्घकाल में न पुरुष और न स्त्री अकेले रह सकते हैं, रह भी नहीं रहै हैं, जहां भी स्त्री को यह लगता है कि वह अकेली चल रही है, तब भी कोई न कोई पुरुष उसके साथ किसी न किसी रिश्ते से जुड्कर अवश्य ही सहयोग कर रहा होता है, ऐसा ही पुरुष के साथ भी है.