टल गयी विपद् कोई सिर से, या मिली कहीं मन-ही-मन जय, क्या हुई बात? क्या देख हुए केशव इस तरह विगत-संशय? [8]
22.
लगा राधेय को शर मारने वह, विपद् में शत्रु को संहारने वह, शरों से बेधने तन को, बदन को, दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को.
23.
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का? किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का? जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है, दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
24.
भला क्यों पार्थ कालाहार होता? वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता? सभी दायित्व हरि पर डाल करके, मिली जो शिष्टि उसको पाल करके, लगा राधेय को शर मारने वह, विपद् में शत्रु को संहारने वह, शरों से बेधने तन को, बदन को, दिखाने वीरता नि: शस्त्र जन को.
25.
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ
26.
छाई है मुरदनी मुखों पर, आँखों में है धँसी उदासी ; विपद् ग्रस्त हो, क्षुधा त्रस्त हो, चारों ओर भटकते फिरते, लस्त-पस्त हो ऊपर को तुम हाथ उठाते, और मनाते ' बरसो राम पटापट रोटी! ' क्योंकि सिखाया, क्योंकि पढ़ाया, क्योंकि रटाया, तुम्हें गया है-' निर्बल के बल राम! (हाय किसी ने क्यों न सुझाया निर्बल के बल राम नहीं हैं निर्बल के बल हैं दो घूँसे!)