हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुध्दि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढकर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है-ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिसपुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ॥४२-४३॥