महाजन, यानि श्रेष्ठ जन, तो जितने मुनि, ऋषि, शास्त्रकार हैं वे सब श्रेष्ठ लोग ही तो हैं।
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संबंध, आयु, विद्वता या बौद्धिक दृष्टि से श्रेष्ठ जन को प्रणाम या साष्टांग प्रणाम किए जाने की परंपरा प्राचीन काल से रही है।
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त्र्यम्बकपन्त सुमन्त, रघुनाथपन्त कोरडे, सर्जेराव जेधे, हिरोजी फर्ज़न्द, मदारी मेहतर राघोमित्र, दावलजी घाटगे आदि श्रेष्ठ जन पंक्तिबद्ध खड़े थे।
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अगुआ हैं. महाभारत की भाषा में कहें तो ' महाजन ' (श्रेष्ठ जन) हैं, जिनके चले रास्ते पर दूसरे चलते हैं.
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इसका अर्थ है कि समाज के श्रेष्ठ जन जिस कानून को शेष देश के लिए आवश्यक मान रहे हैं उससे वे खुद बचे रहना चाहते हैं।
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बहुत बहुत बधाई. लखनऊ के चिठ्ठाकारों का एक मंच का सुझाव सराहनीय है...आशा करता हूँ अगले वर्ष लखनऊ आगमन पर आप श्रेष्ठ जन से मिलने का सौभाग्य प्राप्त होगा
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हमेशा प्यार ही मिला प्यास के अलावाँ कुछ और न मिला, नही और कुछ भी मिला कोई मित्र मिला, तो काई भाई तो कोई अभिववावक तुल्य श्रेष्ठ जन तो कोई बहन।
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इतना तो आज भी सत्य है कि जो श्रेष्ठ जन इस आख्यान को पढ़ेंगे, मनन करेंगे, चिन्तन करेंगे और सदा ध्यान में रखेंगे उनके मन की अधर्म में, सुहृद-द्रोह में, पराए धन में, परस्त्रीगमन में और कृपणता में कभी प्रवृत्ति नहीं होगी।
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हमने बड़े बूढों के मुंह यह सुना है कि जब नागरी बसाहटें उतनी वजूद में नहीं थीं और मानव सभ्यता गाँव गिरावों में आँखें मुलमुला रही थी तब कुछ ख़ास गोत्रों के श्रेष्ठ जन अगल बगल की ईख या अरहर की घनी फसलों में एक ख़ास किस्म की तत्कालीन जलेबी जिसे आज भी “चोटहिया जलेबी” &
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हमने बड़े बूढों के मुंह यह सुना है कि जब नागरी बसाहटें उतनी वजूद में नहीं थीं और मानव सभ्यता गाँव गिरावों में आँखें मुलमुला रही थी तब कुछ ख़ास गोत्रों के श्रेष्ठ जन अगल बगल की ईख या अरहर की घनी फसलों में एक ख़ास किस्म की तत्कालीन जलेबी जिसे आज भी “चोटहिया जलेबी” के नाम से भारत के इस पूर्वांचल में जाना जाता है सरे शाम छोड़ आते थे..