किसी विकलांग ‘विकल-मस्तिष्क ' (एक अननुपातिक, असंयमित और अनैतिक विभ्रांत गुटबाज लेखक का 'पद'-'जनसत्ता' से उद्धृत) वाली आलोचना की तानाशाही के दौर में किसी लेखक का जीवन उस सूफी या संत जैसा होता है, जिसके पद और साखियों को तो सचेत जन-समुदाय बचा लेता है, लेकिन उस पाठ के रचनाकार की नियति उसे किसी मकतल या सलीब की दिशा की ओर ही अक्सर ले जाती अब तक इतिहास में दिखी है।
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किसी विकलांग ' विकल-मस्तिष्क' (एक अननुपातिक, असंयमित और अनैतिक विभ्रांत गुटबाज लेखक का 'पद'-'जनसत्ता' से उद्धृत) वाली आलोचना की तानाशाही के दौर में किसी लेखक का जीवन उस सूफी या संत जैसा होता है, जिसके पद और साखियों को तो सचेत जन-समुदाय बचा लेता है, लेकिन उस पाठ के रचनाकार की नियति उसे किसी मकतल या सलीब की दिशा की ओर ही अक्सर ले जाती अब तक इतिहास में दिखी है।
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किसी विकलांग ‘ विकल-मस्तिष्क ' (एक अननुपातिक, असंयमित और अनैतिक विभ्रांत गुटबाज लेखक का ' पद '-' जनसत्ता ' से उद्धृत) वाली आलोचना की तानाशाही के दौर में किसी लेखक का जीवन उस सूफी या संत जैसा होता है, जिसके पद और साखियों को तो सचेत जन-समुदाय बचा लेता है, लेकिन उस पाठ के रचनाकार की नियति उसे किसी मकतल या सलीब की दिशा की ओर ही अक्सर ले जाती अब तक इतिहास में दिखी है।