इसी तरह वातप्रकृति (विषादी) मनुष्य के भावनाओं की गहनता तथा स्थिरता और संयोगात्मक संवेदनशीलता जैसे गुण उसके बहुत काम आ सकते हैं, किंतु उचित शैक्षिक प्रभाव के अभाव में ये ही अन्यथा मूल्यवान गुण अतिशय संकोच में बदल जाएंगे और आत्मपरक अनुभवों की दुनिया में सिमट जाने की प्रवृत्ति को जन्म देंगे।
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छायावादोत्तर काल में यह व्यक्तिवादी दृष्टि ही मांसल एवं रोमानी अधिक हुई है, जबकि प्रगतिवादी और प्रयोगवाद की मूल चेतना को यथार्थोन्मुख होने के कारण इनमें सौन्दर्य के वाह्यमानों को ही अधिक प्रमुखता मिली है, परन्तु नवगीत के नये युग के सौन्दर्यबोध को उसकी वस्तुपरक प्राणवत्ता और भावपरक तरलता के संयोगात्मक रूप में उपस्थित किया है।