यही सखाभाव आज की वैश्विक खतरों से जूझने की भी वैचारिकी हो सकता है कि समानधर्मा जनपद एक लय मे स्वयं को विन्यस्त करते रहें ।
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इसका कारण सिर्फ इतना है कि देवी-देवताओं का हमारी संस्कृति ने मानवीकरण किया, न सिर्फ शरीर से अपितु विचारों से भी और फिर सखाभाव और प्रेमभाव से उनकी भक्ति की।
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जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दांपत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुन: सखाभाव को प्राप्त कर लेता है।
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सखाभाव की साख अस्सी पार कर चुके इस युवा के बारे में तमाम तरह की किंवदंतियां प्रचलित हैं, जिनमें से अधिकांश सुरीली हैं, क्योंकि उनका संबंध सुरा और सुंदरियों से है।
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जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दांपत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुन: सखाभाव को प्राप्त कर लेता है।
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(5) प्रेमभाव सबसे महत्त्वपूर्ण भाव है, इसमें ऋषि का शान्तभाव हनुमान का दासभाव, ग्वालों का सखाभाव और यशोदा का वात्सल्य भाव और बाललीलाएँ सब मौजूद हैं, साथ ही प्रेमीभक्त की आत्मा-परमात्मा में समाहित होकर उसी की हो जाती हैं।
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सं स्कृत के जारः शब्द की अर्थवत्ता स्त्री के प्रेमी, आशिक या सखा तक सीमित है मगर जब यह फारसी में दाखिल हुआ तब इसमें शामिल सखाभाव ने स्त्री के दायरे से मुक्ति पाई और विशुद्ध साथी, संगी, मित्र, दोस्त के अर्थ में यह स्थापित हुआ।
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देवी और देवताओं का हमारी संस्कृति ने मानवीकरण किया, सखाभाव और प्रेमभाव से भक्ति की, अब अगर ऐसा होगा तो भक्त अपनी काम भावनाओं को कूड़ेदान में नहीं फेंक देगा, बल्कि जिस ईश्वर को उसने इतना सुंदर-मोहक-आकर्षक बनाया है उसमें काम का दिखना एकदम स्वाभाविक बात है.
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यही आकर्षण बराबर वालों के प्रति मित्रता, प्रेम और सखाभाव के रुप मैं परिणत होता है | यही अपनों से छोटों के प्रति दया, अनुकम्पा के रुप मैं प्रकट होता है | वही काम, माता के स्तनों मैं वात्सल्य के रुप मैं, प्रेमी का आलिंगन करते समय कामरुप में और वही काम दिन-दुखियों के प्रति करुणा कृपा के रुप में अवतरित होता है |
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जिसके नौ दिन यानी भक्ति के नौ प्रकार और नौ पायदान हैं-(1) वण (कान से भगवान के बाबद सुनना), (2) कीर्तन, (3) नामजप, (4) पाद्य पूजा, (5) प्रार्थना, पूजा, (6) वंदन, (7) सेवा, (8) ईश्वर से सखाभाव, (9) समर्पण।