श्री नामवर जी ने इस तथ्य को बड़ी सदाशयता से स्वीकार किया है-“प्रसाद जी की श्रद्धा ने तो अपनी स्मिति रेखा से ज्ञान, इच्छा और क्रिया के त्रिपुर को ही आकाश में एकजुट किया था, द्विवेदी जी की सर्जनात्मक कल्पना तो जाने कितनी असम्बद्ध वस्तुओं को एक सूत्र में बाँधती चलती है।''......‘‘आशय यह है कि वे ‘कोई तैयार सत्य उठाकर हमारे हाथ पर नहीं धरते।” जो कुछ भी है वह अपना अनुभूत सत्य।