लोग इधर-उधर भागने लगे | श्रीदत्त की दशा ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं | बाहुशाली ने बड़े धैर्य से काम लिया और उसने राजकुमारी की सेविका से कहा-“ मेरे मित्र श्रीदत्त के पास सर्पविष नाशक अंगूठी है | वह विष दूर करने वाला मंत्र भी जानता है | ”
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जिन कर्मों का फल धन, राज्यलाभ आदि और लोभ, हिंसा, मिथ्याभाषण आदि दोषरूप सर्पविष के वेगों के विस्तार के लिए होता है उन्हीं युद्ध जुआ, व्यापार आदि कर्मों से यह बढ़ती है-यज्ञ, दान आदि से नहीं, उनसे तो बढ़ने के बदले घटती है, क्योंकि उनमें इसका व्यय होता है।।
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इसी से जो पंडित लोग इनका नाम गरलारि अनुमान करते हैं सो भी ठीक है क्योंकि गरलारि जो मरकत अथवा गरुड़ मणि है सो गरुड़ जी की कृपा से पूर्वकाल में इनके यहाँ बहुत थे और इनको सर्प नहीं काटता था और ये सर्पविष निवारण में बड़े कुशल थे इसी से गरुड़ाय्र्य कहलाते थे, अब गड़रिया कहलाने लगे हैं।
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आदरणीय दिव्या जी, सादर! “ ” ये दुनिया जितनी आकर्षक है उतनी खतरनाक भी ” ” आपकी यह पंक्ति बिलकुल सत्य है! पर वहीँ है कि किसी भी चीज के दो पहलु हैं सकारात्मक और नकारात्मक! यह तो सर्पविष है! मात्रा सही है तो औषधि वरना मृत्यु! वैसे बच्चों के प्रति सावधानी तो उनके माता-पिता ही रख सकते हैं! रखना आवश्यक है! मेरी हार्दिक बधाई!
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किंतु उनके निर्माण की विधि में विचित्र वस्तुओं का उपयोग है-विशेषकर जो कम उपलब्ध हैं ; जैसे: पारा, मणियाँ, सिंदूर, विभिन्न गोंदें, अभ्रक, साँप की केंचुली, सर्पविष, गृध्रास्थि, हीरा, स्फटिक मणि, विभिन्न चर्म, काकड़सिंगी के मूल का क्षार, केंकड़े की टाँगों का क्षार, हरिण का सींग, स्थावरविष (वज्र), गंधक, धतूरे के बीज, हाथीदाँत का चूर्ण, भैंस का खुर, खरगोश से लेकर गेंडा तक की विष्ठा आदि-आदि।