जब हम सामाजिक उद्देश्य की कल्पना करते है तब निश्चित ही उसमें कुछ ऐसे शाश्वत गुण होने चाहिये जो देश, काल और परिस्थिति-निरपेक्ष हो | केवल सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली वस्तु सामाजिक लक्ष्य न होकर साधन-मात्र ही कही जा सकती है | लक्ष्य सदैव सत्य, सकारात्मक और महान होना चाहिये |
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और फिर हमारे इस निरर्थक अस्तित्व की पृष्ठभूमि में हमारे सामाजिक रागात्मक सम्बन्धों का मूल्य ही क्या? जो खुद क्रीड़ा का साधन-मात्र है उसके लिए श्यामा क्या, केतकी क्या? और उसकी अपनी जीवन की गतिविधि भी क्या? अगर कई गोलियाँ एक कतार में रख दी जायें और पहली गोली को कोई थोड़ी-सी ठोकर दे दे तो वह दूसरे से टकराती है।