व्याकरणिक इकाई होने के साथ-साथ वह संस्थागत प्रतीक भी है और सम्प्रेषण का अन्यतम उपकरण होने के साथ वह हमारी सामाजिक अस्मिता का एक सशक्त माध्यम भी है।
22.
खासकर, सामाजिक अस्मिता के सवाल ने लेखकों और विचारकों को उन सवालों पर सोचने के लिए दबाव डाला है, जो मुख्यधारा की प्रक्रिया से बाहर रहे हैं।
23.
सामाजिक अस्मिता की राजनीति में आक्रोष की अतिषयता तो होती है, मगर अवधारणाओं के निर्माण और ग्रहण के प्रसंग में लचीलेपन और खुलेपन की गुंजाइष भी बनी रहती है।
24.
जाति, धर्म, नस्ल, राष्ट्रीयता-किसी एक पहचान को ही एकमात्र सामाजिक पहचान मान लेना सामाजिक अस्मिता का फंडामेंटलिज्म है, और हर फंडामेंटलिज्म की तरह फंडामेंटली खतरनाक है।
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फुले-पेरियार-नारायण गुरू-अम्बेडकर ने आत्म सम्मान और सामाजिक अस्मिता की जो भावभूमि तैयार की थी तथा संघर्ष का जो दीप प्रज्ज्वलित किया था, आज वह और भी तेजी से प्रदीप्त हो उठा है।
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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है बल्कि वह स्वयं में एक कथ्य भी है जो सामाजिक अस्मिता और द्वेष का कारण बनता है।
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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है बल्कि वह स्वयं में एक कथ्य भी है जो सामाजिक अस्मिता और द्वेष का कारण बनता है।
28.
आधुनिक संगठित धार्मिक संस्थाएँ एक तरह से इन सभी खासियतों का (रस्म, नैतिकता, अध्यात्म, सामाजिक अस्मिता) एकमुश्त वैचारिक मिश्रण बनाकर इंसान को मजबूर करती हैं कि वह बँधा रहे।
29.
व्यक्तिगत अस्मिता और सामाजिक अस्मिता में कोई अन्तर्विरोध नहीं है, किन्तु बहुमत की राजनीति के खेल में जिस भीड़-तंत्र का विकास हुआ है, उसमें ये दोनों विरोधी होकर उपस्थित हुए लगते हैं।
30.
मैत्रेयी पुष्पा ने ज्योंही परंपरागत स्त्री और नई स्त्री की अस्मिताओं के बीच की जंग या अन्तर्विरोधों को चित्रित किया त्योंही वह एक नई सामाजिक अस्मिता के उदय की ओर भी संकेत छोड़ती हैं।