साथ ही उन्होंने लिखा है कि मेरी पत्नि मेरी मृत्यु के बाद धार्मिक सामाजिक क्रियाएं पूर्ण कर मेरा मृत शरीर मेडीकल कॉलेज ग्वालियर में चिकित्सा छात्रों के अध्ययन हेतु दे दिया जाए साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि धार्मिक सामाजिक क्रिया के बाद मेरे मृत शरीर पर मेरे परिवार के सदस्यों का हक नही होगा।
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टोंनीज़ ने अवधारणा और सामाजिक क्रिया की वास्तविकता के क्षेत्रों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींची: पहले वाले के साथ हमें स्वतःसिद्ध और निगमनात्मक तरीके से व्यवहार करना चाहिए (' सैद्धान्तिक ' समाजशास्त्र), जबकि दूसरे से प्रयोगसिद्ध और एक आगमनात् मक तरीके से (' व्यावहारिक ' समाजशास्त्र). Max Weber 1894. jpg
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अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ' सामाजिक क्रिया की संरचना ' में पारसन्स ने कर्म के चार तत्वों का उल्लेख किया है: १. वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment) २. साधन और साध्य (means & ends) ३. अंतिम मूल्य (ultimate values) तथा ४. प्रयत्न (efforts). मनुष्य क्रिया का कर्ता होता है.
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[23] बहरहाल, प्राकृतिक वैज्ञानिकों द्वारा खोजे जाने वाले संबंधों के विपरीत एक गैर प्रत्यक्षवादी के रूप में, एक व्यक्ति संबंधों की तलाश करता है जो “अनैतिहासिक, अपरिवर्तनीय, अथवा सामान्य है”.[24]फर्डिनेंड टोनीज़ ने मानवीय संगठनों के दो सामान्य प्रकारों के रूप में गेमाइनशाफ्ट और गेसेल्शाफ्ट(साहित्य, समुदाय और समाज) को प्रस्तुत किया.टोंनीज़ ने अवधारणा और सामाजिक क्रिया की वास्तविकता के क्षेत्रों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींची:
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पारसन्स ने अपनी दूसरी पुस्तक ' द सोशल सिस्टम ' में सामाजिक क्रिया को और अधिक स्पष्ट करने के लिए सामाजिक क्रिया के तीन आधार दिए है-१. कर्त्ता (actor) २. परिस्थिति (situation) ३. प्रेरणा (motive). कर्त्ता द्वारा अपनी पारिस्थिति के अनुसार वही सामाजिक कार्य किये जाते हैं जिनका कोई प्रेरणात्मक महत्त्व होता है अर्थात जिन कार्यों को करने से किसी अच्छे फल की प्राप्ति की सम्भावना होती है.
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पारसन्स ने अपनी दूसरी पुस्तक ' द सोशल सिस्टम ' में सामाजिक क्रिया को और अधिक स्पष्ट करने के लिए सामाजिक क्रिया के तीन आधार दिए है-१. कर्त्ता (actor) २. परिस्थिति (situation) ३. प्रेरणा (motive). कर्त्ता द्वारा अपनी पारिस्थिति के अनुसार वही सामाजिक कार्य किये जाते हैं जिनका कोई प्रेरणात्मक महत्त्व होता है अर्थात जिन कार्यों को करने से किसी अच्छे फल की प्राप्ति की सम्भावना होती है.
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उ. यह तर्क व्यर्थ है क्योंकि उत्सव धर्म से प्रेरित सामाजिक क्रिया कलाप है-अपने आप में धर्म नहीं है | उत्सव और उनकी विधियाँ भारत में दो-दो किलोमीटर के फ़ासले पर बदलती जाती हैं-इस वैविध्य को जहां तक वेदानुकूल है-उत्साहित किया गया है | हिन्दू लोग त्यौहारों को सामाजिक प्रसंग की तरह लेते हैं ताकि अपने आदर्शों के प्रति सम्मान प्रकट कर सकें और अच्छाई के प्रति कृतसंकल्प हो सकें | त्यौहारों को मनाने का स्वरुप हमेशा समय, स्थान और समाज के अनुसार बदलता रहता है |