और इस पढ़ाई के ही बूते उसने ये साबित कर दिखाया था, कि अंधों में काना राजा ही नहीं बल्कि आर्यभट्ट भी हो सकता है।
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दूसरा पढाई मैं भी मैं अंधों में काना राजा था I तीसरा कारण यो था कि एक दिन एक छोरे नैं headmaster का कालर पकड़ लिया था क्लास मै.
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और तीसरी, वही अंधों में काना राजा वाली दलील कि ब्लेयर-ब्राउन कंपनी कितनी भी बुरी क्यों न हो, कंजरवेटिव पार्टी हर हाल में उनसे बदतर है।
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फ़िर भी नेताओ इस इस दिग्भ्रमित, दिशाहीन भीड़ में एक सार्थक नेता चुनने के लिए कुछ तो मापदंड होने ही चाहिय चाहे वे अंधों में काना राजा का चयन ही क्यों न हो....
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वर्तमान में सच्चा और ईमानदार प्रत्याशी अव्वल तो मिलना मुश्किल है और अगर ऐसा कोई प्रत्याशी मिल गया और जीत भी गया तो उसे सारे बेईमान ईमानदारी से जीने नहीं देंगे. अब तो अंधों में काना राजा ढूंढो,बस.
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अभी कुछ नहीं पता, … तेल देखें तेल की धार देखें, … मुश्किल यह है की जनता को हमेशा अंधों में काना राजा ही चुनना होता है, … अंधों के लिए काना कोई बुरा भी नहीं है!!!!!!
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चुनाव में “इनमे से कोई नहीं” के विकल्प की मांग की जा रही है, पर सरकार या कोई भी राजनितिक दल इसे लाने के लिए तैयार नहीं है, क्योकि तब जनता अंधों में काना राजा चुनने के बजाय सबको नकार देगी.
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हमारा वर्त्तमान लोकतंत्र, राजतंत्र का ही रूप है:-१. जनता उमीदवार नहीं चुन सकती. २. अंधों में काना राजा चुनने की मज़बूरी है, इनमे से कोई नहीं का विकल्प जान बुझ कर नहीं दिया जा रहा है.
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टी वी चैनल्स की टी आर पी और कमाई, भारतीय जनता की धर्म भीरुता और कर्मों को छोड़ कर चमत्कारों में विश्वास, भ्रष्ट लोगों की धूर्त सोच और अंधों में काना राजा वाले हालात-यह सब जिम्मेदार हैं इन बाबाओं के पनपने के.
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चुनाव में “ इनमे से कोई नहीं ” के विकल्प की मांग की जा रही है, पर सरकार या कोई भी राजनितिक दल इसे लाने के लिए तैयार नहीं है, क्योकि तब जनता अंधों में काना राजा चुनने के बजाय सबको नकार देगी.