| 31. | समन्तभद्र के उत्तरवर्ती जैन तार्किक आचार्य अकलंक ने कुमारिल के इस आक्षेप का जवाब देते हुए कहा हैं *:-
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| 32. | ' अकलंक ने स्याद्वाद पर किये गये धर्मकीर्ति के आक्षेप का ' सेर को सवा सेर ' जैसा सबल उत्तर दिया है।
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| 33. | सप्तभंगी के प्रतिपादन में प्रमाणसप्तभंगी तथा नयसप्तभंगी के लिए क्रमश: सकलादेश और विकलादेश की योजना अकलंक के द्वारा ही बनाई गई है।
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| 34. | इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
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| 35. | प्रत्यक्ष ज्ञान की अस्पष्टता पर बल देने के लिए अकलंक ने ' साकार ' और ' अञ्जासा ' पदों का व्यवहार किया है।
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| 36. | अकलंक के पहले के आचार्यों ने जो भूमिका तैयार की थी, उसके आधार पर उन्होंने जैन न्याय का एक भव्य प्रासाद खड़ा किया।
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| 37. | यह वह संग्राम है जिसमें एक चूक भी अक्षम्य होती है, इसमें वे ही हाथ बँटा सकते हैं जो सर्वथा अकलंक हो... '
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| 38. | कुछ ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित हुई जो आगे कुंदकुंद, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानंद, हरिभद्र, यशोविजय, आदि रुप में विकशीत होती गयी।
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| 39. | अत: अकलंक को जैन दर्शन और जैन न्याय के मध्यकाल का प्रतिष्ठाता और इसीलिये उनके इस काल को ' अकलंककाल ' कहा जा सकता है।
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| 40. | साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।
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