चमक पड़ा मर्म / आदिवासी गांव की छाती से गुजरती सड़क का / कि हमारी शोषण की सभ्यता का / कि जिसकी बांह राजधानी सें यहां तक आयी है / लुटेरी बांह / टटोलती इसकी छाती के कोयले आत्मा का अबरख / यह सड़क / कि यह नहीं राजधानी से बहती आयी सभ्यता की नदी / कि इससे कोई नहीं सम्बन्ध / इसके किनारे बसे हुओं का / सिवा इसके कि / पिपासु पहियों के नीचे आ जाते हैं जब तब / इनके चूजे और बच्चे और अड़हुल सा खिला किसी युवती का यौवन रौंदा जाता है।