कुछ ऐसा ही तर्क करते हुए कुमकुम संगारी ने १ ९ ८ ० के दशक के मध्य में रश्दी और गार्सिया मार्केस पर एक बेहतरीन विश्लेषण लिखा जिसने पाठकों की इस धारणा को कि बाद के दौर की रचनाओं में जादुई यथार्थवाद का प्रयोग अयथार्थवादी है, को झकझोर कर उसपर पुनर्विचार के लिए प्रोत्साहित किया.
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मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता कि अनौपचारिक या अयथार्थवादी पठन जिसको किसी सूचना या लाभप्रद किसी तात्कालिक संवाद की आवश्यकता नहीं है, वह कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सपनों को,शब्दों के आनन्द को उसी समुत्तेजना, उसी निकटता, उसी मानसिक एकाग्रता और आत्मिक एकान्त के साथ सम्बन्ध कर सकता है जैसा कि एक पुस्तक के पढ़ने की क्रिया द्वारा उपलब्ध होता है.
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मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता कि अनौपचारिक या अयथार्थवादी पठन जिसको किसी सूचना या लाभप्रद किसी तात्कालिक संवाद की आवश्यकता नहीं है, वह कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सपनों को, शब्दों के आनन्द को उसी समुत्तेजना, उसी निकटता, उसी मानसिक एकाग्रता और आत्मिक एकान्त के साथ सम्बन्ध कर सकता है जैसा कि एक पुस्तक के पढ़ने की क्रिया द्वारा उपलब्ध होता है.