मानवो और आत्मचेतन रोबोटो के अधिकारो मे संतुलन किस तरह रखा जाये कि वे एक दूसरे के सहअस्तित्व मे रह सके जिससे मैट्रिक्स या टर्मीनेटर जैसी स्थिति उत्पन्न ना हो।
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उन्होंने तथाकथित जनवादी छद्म और जनभाषा की तटस्थ शब्दावली को छोड़ कर उसके समानान्तर काव्यभाषा का एक ऐसा रचनात्मक संसार खड़ा किया जिसमें कवि साकार समूह का आत्मचेतन विस्तार प्राप्त करते हैं.
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जब हम आत्मचेतन होते हैं, या स्वयं को शरीर न समझकर आत्मा समझते हैं तभी हमारे अंदर के मौलिक गुण, सत्य, शांति, प्रेम, खुशी, पवित्रता, शक्ति, परमानंद साथ ही साथ आते हैं।
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कोई ऐसा क्षण पाया जा सके-ऐसे क्षण को कोई पा सके, आत्मचेतन होकर स्मृति और आकांक्षा से परे जी सके, तो वह ऐसा व्यक्ति हो जाएगा जिसकी छाया नहीं होती-उसकी ऐसी शुद्ध काल-चेतन होगी कि वह काल-मुक्त हो जाएगी।
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मानव संस्कृति की बात करते हुए हम आरम्भ यहाँ से भी कर सकते हैं कि मानव पहला आत्मचेतन प्राणी है-ऐसा प्राणी जो पूछ सकता है मैं कौन हूँ, मैं कहाँ जा रहा हूँ-ऐसा प्राणी जो अपनी मृत्यु की पूर्व-कल्पना कर सकता है और इसलिए अमरत्व को सन्तानता की भावना के साथ जोड़ सकता है-जो इस प्रकार इतिहास का स्रष्टा बन जाता है, जैविक स्तर पर अपने विकास को प्रभावित करने का सामथ्र्य पा लेता है, संस्कृति का उद्भव-स्रोत बन जाता है।