मैं रामवि लास जी का एक उद्धरण देना चाहता हँ, उन् होंने लि खा है, ' नामवर की मुद्रा यह है कौन रामचन् द्र शुक् ल, लोकमंगल वाले ना, कौन नगेन् द्र रस सि द्धान् त वाले ना, कौन नंददुलारे बाजपेयी प्रसाद वाले ना, कौन रामवि लास शर्मा मार्क् सवादी ना।
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उनके लिए माल्थस की पुस्तक ' एस्से ऑन द प्रिंसिपुल ऑफ पॉपुलेशन ' (1798) और रिकार्डो की पुस्तक ' प्रिंसिपुल्स ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी ' (1817) से भी उद्धरण देना क्या जरूरी था? गिरीश मिश्र की अभी तक कोई पुस्तक ' क्लासिकल अर्थशास्त्र ' और ' नव क्लासिकल अर्थशास्त्र ' पर शायद प्रकाशित नहीं है।
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रंजू जी की साहित्यसेवा को मैं “ भाषा भनिति भूति भल सोई, सुरसरि सम सब कर हित होई ” के ही निकष पर देखने परखने का आकांक्षी हूँ! (अब एक साहित्यकार के बारे में जब कुछ लिख रहा हूँ तो ऐसे कुछ उद्धरण देना मजबूरी हो जाती है ना भाई लोगों / लुगाईयों! फिर रंजना जी को थोड़ा इम्प्रेस भी तो करना है ना!
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(अब एक साहित्यकार के बारे में जब कुछ लिख रहा हूँ तो ऐसे कुछ उद्धरण देना मजबूरी हो जाती है ना भाई लोगों/लुगाईयों! फिर रंजना जी को थोड़ा इम्प्रेस भी तो करना है ना! और कुछ डांट फटकार न मिले-क्राईसिस मैनेज भी तो करनी है! कुछ समझा भी करिए!) आईये इस अदम्य ऊर्जा और दृढ़ संकल्पी नियमित और सयंमित ब्लॉगर का अभिनन्दन करें!