बाँहों के झूले जब तरस गए आज तो आँखों से बदल कुछ बरस गए आज बरस कई बीते एक नन्ही सी जान उतारी ज्यों अंधियारे जीवन में चाँद मगन हुए तन मन और तृप्त हुए प्राण जैसे मन वीणा पर गुम्फित एक तान भीगे जब स्वर टूटे सपनों के साज़ तो आँखों से बदल कुछ बरस गए आज
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नशे में बहकती किसी लय पर थिरकती एक टूटी सी हिचकी, कोई आधे से साँस की छूटी टूटी सी भूली एक तान, गिरे देह की दाह में कोई एक ताप गीले से स्नेह का अँधेरे में सहलाता, खिड़कियों से कूदता दबे पाँव फुसफुसाता है, देखा है तुमने हवा के पाँव? नीम नशे में दुबकती, सिमटती, उँगलियों के नोक पर आखिरी ज़र्रे की जरा सी आँच तक काँपती
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भवानीप्रसाद मिश्र के लिए तो किसान धरती पर उल्लास और आनन्द के स्वर्गिक संगीत का सर्जक ही है-' और अटपठी एक तान किसी किसान कीबचे-खुचे खालीपनधरती और आसमान के मन को भरती हुर्इदुनिया क्या हुर्इ वह तो स्वर्ग हो गया (स्वर्गिक कविता, रचनावली, भाग-3) अपनी किसान का गीत शीर्षक कविता में तो वे किसान को सम्बोधित ही करते हैं-' भार्इ! कुदाली चलाते चलोमिटटी को सोना बनाते चलो ।