भक भव्य सुवर्णाभ राज प्रसादों में अटके हैं नीले मेघ गवाक्षों पर मखमली परदों के पीछे सज रहे हैं रंगमहल मांझे हुए रेशम से बुने हुए ऐन्द्रजालिक अन्तःपुर हो रहे हैं द्धयूत चौसर रस काम क्रीड़ा विहार बैठे सिंहासनों पर गरबीले रोबदार कटपूतन रच रहे हैं नये सत्ता सूत्र संतरण सज रहे हैं खड्ग फरसे बरछे भाले ढाल बुन रहे हैं युद्धों के नये भूतजाल
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मगर फिर भी एक एक शब्द को पढ़ लेने उन तक पहुंच जाने की कशिश बनी रहती है....सच है एक ऐन्द्रजालिक मायाजाल ही है जीवन-परत दर परत इन्द्र्जालों का मोहपाश-एक काटो दूसरा मौजूद.सब काट डालो (.ऐसी कोई जुगत है क्या?) तो नए इंद्रजाल सृजित होते हुए उभरते हुए लगते हैं-और ऐसी ही उधेड़बुन और आपा धापी के बीच एक दिन जीवन निशेष हो जाता है.......
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ब्रह्मन, कटाक्षदर्शन के समान क्षणभंगुर व्यवहारपरम्परा से मनोहर यह संसाररचना कटाक्षपात और क्षणभंगुर नई नई कारीगरियों से मनोहर नृत्तासक्त नटी के समान अदभुत गन्धर्वनगर के सदृश अनेक भ्रम उत्पन्न करती है और यह पुनः पुनः बिजली रूप चंचल दृष्टि को फैलाती है अर्थात् जैसे ऐन्द्रजालिक स्त्री तन्त्र और मन्त्रों के विस्तार द्वारा लोगों के नयनों की दर्शनशक्ति को आच्छादित कर अवस्तु में वस्तु ज्ञान उत्पन्न कराती है, यह संसाररचनारूपी नर्तकी की दृष्टि भी वैसे ही बिजली से भी चंचल है अतएव यह नृतासक्त संसार रचना नृतासक्त नटी के समान है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।।