जबकि चिरी हुई दीवार की ओट मंे खड़े उनके आँसुओं के पीछे धूल में पिटते नंगे चेहरों को धोता कँटीला घड़ियाल है कीचड़ में पद्म-श्री सूँघता हुआ और प्रतीकों की जकड़ जहाँ ख़ून में मिली हुई दूर तक उभड़ती चली गयी है उस दुर्घटना में-कोई है जो मेरे बदहवास निहत्थेपन को सिर्फ़ मेरा कुचला हुआ सौन्दर्यबोध न कहे और जब मेरी चुप चीख से उतरकर हाथ-पाँव की हरक़त में बदल जाए तो उसे पिछड़ेपन की छटपटाहट नहीं, चीजों को तोड़ने का इरादा समझे?