उन्होंने छात्रों से कहा कि वे कला आलोचना के प्रति अपनी समझ विकसित करें और इस क्षेत्र में आगे आएं, क्योंकि इस क्षेत्र में असीम सम्भावनाएं हैं।
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लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमारी कला आलोचना के क्षेत्र में जो लोग नियमित काम कर रहे हैं, वे हुसैन ही नहीं, तमाम 'बड़े' और 'बिकने वाले' कलाकारों के कृपासाध्यों की सूची में है या फिर कलादीर्घाओं के 'अघोषित वेतनभोगी' या कहें कि 'पेड-क्रिटिक' हैं।
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समकालीन कला आलोचना की खामियों तथा उसमें गंभीर लेखन के ख़ामियाज़ों की ओर संकेत करते हुए आलोचक ने लिखा है कि “ समकालीन कला परिदृ ¶ य में कला आलोचकों की बड़ी कमी है जो कलाकृति के सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों और सरोकारों के संबंध में वि ¶ लेषित करते हुए परिभाषित करते हों।
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अब तक उनकी प्रकाशित कृतियों में-जैनेन्द्र संचयिता, सम्यक तथा विधा की उपलब्धि, कृति-आकृति, भारतीय कला के हस्ताक्षर तथा रूपंकर (कला आलोचना), सोनबरसा (उपन्यास) और आलोचना की छवियॉं, विमर्श और विवेचना, जैनेन्द्र और नैतिकता तथा पुरखों का पक्ष (आलोचना) आदि हैं.
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लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमारी कला आलोचना के क्षेत्र में जो लोग नियमित काम कर रहे हैं, वे हुसैन ही नहीं, तमाम ‘ बड़े ‘ और ‘ बिकने वाले ‘ कलाकारों के कृपासाध्यों की सूची में हैं या फिर कलादीर्घाओं के ‘ अघोषित वेतनभोगी ‘ या कहें कि ‘ पेड-क्रिटिक ' हैं।
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अपने आसपास और भीतर की दुनिया के बिम्बों को कला-मंतव्यों के लिए प्रयोग कर लेने की जागरूकता, उन्हें आगे आने वाले समय में भी प्रासंगिक रहने वाले चित्रकार के रूप में स्थापित करती थी, यह बात भिन्न है कि जितना गहरा और मुकम्मल मूल्यांकन ज्योतिस्वरूप जैसे चित्रकार का होना चाहिए था, भारतीय कला-समीक्षा उस दायित्व के प्रति प्रायः विस्मृत रही है और ज्योतिस्वरूप की कला इस मायने में समकालीन कला आलोचना के लिए एक पाठ भी है कि एक सर्जनात्मक कलाकार को सांस्कृतेतर कारणों से यों उपेक्षित किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।