‘कारवाँ सिने संगीत का ' भारतीय सिनेमा के सौ साल-45 कारवाँ सिने-संगीत का फिल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत: ‘मैं ख़ुश होना चाहूँ, हो न सकूँ.....
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धूप छाँव ' में ही पारुल घोष, सुप्रभा सरकार और हरिमति का गाया एक गीत था “ मैं ख़ुश होना चाहूँ, हो न पाऊँ...
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ऐसा लग रहा है जैसे माँ लक्ष्मी से उक्त प्रकाशन ने सारे rights ख़रीद रखे हैं और माँ का ख़ुश होना उसी प्रकाशन की पुस्तकें बांटने पर निर्भर है.....
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इन किताबों ने आज जो भी क़हर ढा रक्खा हो, हमें ख़ुश होना चाहिए कि कम से कम आगामी पुश्तों के लिए हम उनके हंसने का सामान तो सौंप रहे हैं।
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इसी फ़िल्म में उनका लिखा और पारुल घोष, सुप्रभा सरकार और हरिमति का गाया गीत “मैं ख़ुश होना चाहूँ, हो न पाऊँ...” सही अर्थ में भारतीय सिनेमा का पहला प्लेबैक गीत था।
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तो बालासाहेब को तो ख़ुश होना चाहिए कि सचिन ने बचपन मैं ही राजनीति की डिग्री ले ली और ऐसी संस्था से ली जो अखिल भारतीय स्तर की है और मान्य है।
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लेकिन छोटे छोटे नेक कामों पर ख़ुश होना और घमण्ड करना इस बात का कारण बनता है कि हम गुनाह ही को भूल जाते हैं और उसकी माफ़ी मागने की नौबत ही नहीं आती।
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एकाध को पढ़कर मुझे समझ ही न आया कि ये किन मन: स्थितियों में लिखी गई थीं और इनका अर्थ क्या है (जो लोग मुझसे मेरी कविताओं का अर्थ पूछते हैं, उन्हें ख़ुश होना चाहिए).
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फिर याद आया आज पहली अप्रैल है यानि आज के दिन अगर कोई हमें मूर्ख बनाए तो हमें ख़ुश होना चाहिए और हमें भी छूट है कि हम भी किसी को मूर्ख बना सकते है।
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भारत में एक ही दिक़्कत है कि लोग हर मुद्दे को संवेदनशील मुद्दा बनाना चाहते हैं लेकिन यह तो ख़ुशी की बात है, इस पर लोगों को ख़ुश होना चाहिए और कोई विवाद नहीं होना चाहिए