सोचती हूँ कि काश! दुनिया ऐसी न होती... । और रिश्ते...? कुछ रिश्तों पर हमें बड़ा नाज़ होता है क्योंकि वे रिश्ते हमारे खून में घुले-मिले होते हैं पर सच तो यही है कि खून भी कभी-कभी पानी सरीखा हो जाता है... । साफ़ नहीं, गंदला पानी... ।
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उस पार कितनी शांति है, बीच में थोडा सा गंदला पानी जरूर है जैसे बरसात में खोली और गली के बीच में होता है पर जब पार करने के लिए ईंटों पर पैर रखते थे तो उम्मीद होती कि तर गए लेकिन याद है कैसे वो भीतर से खोखली हुआ करती और पाँव बीच पानी में उलट जाते...
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अभी धुंध हटेगी और राह पर आते-जातों की भरमार होगी अभी खुलेंगे स्कूल चलते चले जायेंगे रिक्शे ढेर के ढेर बच्चों को लाद अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक रेता-रोड़ी गिराते जिनके पहियों से उछलकर थाम ही लेगा हर किसी का दामन गड्ढों में भरा गंदला पानी अभी एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी जो जाता होगा कहीं कुछ बचाने-बनाने को अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी हूटर और बत्ती से सजी ललकारती सारे शहर को एक अजब-सी मदभरी अश्लील आवाज़ में
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जो हो, मुझे यह सूझा कि यहाँ खाइयों में जो दो-सौ तीन-सौ जापानी कीचड़, मच्छर, जोंकों में पड़े सड़ रहे हैं, तिस पर खाने को चावल-मांस कुछ नहीं और पीने को गंदला पानी जो पियो और पेचिश से मरो ; और एक बड़ी बात कि दुश्मन कहीं दीखता नहीं-क्योंकि उस घने जंगल में वहाँ दिन में भी अँधेरा-सा रहता था, दो सौ गज दूर पर दुश्मन की खाइयाँ हो सकती थीं और चिल्लाएँ तो एक-दूसरे की आवाज सुन सकते थे।