सबसे पहल्र भाजपा को एक गुटबाज, मौकापरस्त, संकुचित दृष्टि, और घोर जातिवादी ठाकुर नेता को पार्टी के अध्यक्षपद से हटाकर जबरिया रिटायर कर देना चाहिए।
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यूं तो मध् यप्रदेश भाजपा में गुटबाज ी का बीजारोपण 90 के दशक में हो गया था, तब पटवा और जोशी आमने-सामने आ गये थे।
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वही एक ऐसे नेता है जिसके आगे किसी गुटबाज नेताओं के दवाब में रह कर नहीं अपितु संगठन के हित के लिए काम करने की कुब्बत है।
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भाजपा का पराभव उसी दिन तय हो गया था जब महान गुटबाज और संकुचित मानसिकता का एक जातिवादी ठाकुर नेता जोड़-तोड़ से इस पार्टी का अध्यक्ष बन बैठा।
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डींग हांकते हो व्यक्तिवादिता से निरपेक्षता की, जब कि सबसे बड़े व्यक्तिवादी और गुटबाज इस मंच पर तुम हो, इसका पहला सबूत तुम्हारी ये शिकायत है.
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सवाल यह है कि उस घिसेपिटेपन से बचने के लिए हिन्दी के प्रायोजकों और गुटबाज लेखकों ने क्या किया? पहले अशोक वाजपेयी की महान खोज पर ध्यान दें।
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कुछ पुराने गुटबाज नए गुटों को प्रोत्साहित करने के काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं और कुछ घी डाल कर आग लगाने का काम कर रहे हैं.
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गुटबाज और जमीन से पूरी तरह कटे नेताओं को राहुल की कड़वी दवाई रास नहीं आ रही है और वो उसे गटकने की बजाय कुल्ली कर बाहर उड़ेल रहे हैं।
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यदि गिनती के कुछ कथाकारों और कवियों को छोड़ दिया जाए तो साहित्य की इस महत्वपूर्ण विधा पर लिखने वाले ज्यादातर गुटबाज और संस्थान संरक्षित लोग ही दिखाई पड़ रहे हैं।
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हमारे जैसे चिट्ठाचर्चा करने वाले फ़ालतू के गुटबाज लोग, और उन्हें समय समय पर ये बताने वाले गुटबाज कि आप चर्चाकार तो बस अपने गुट की ही चर्चा करते हो...