परंतु हम यह नहीं सोचते कि जिस कला को हम सही तरीके से सीखा सकते हैं और जानकारी दे सकते हैं, बच्चे और किशोर उसी कला का ज्ञान सस्ते और घटिया साहित्य तथा पोर्न साइटों पर खोजेंगे.
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इसलिये समझ की बात यही होगी कि हम घटिया साहित्य से कभी-कभी मन बहलाव करते हुये भी, और उसे साहित्यिक दुनिया की अनिवार्य संक्रामक स्थिति मानते हुये भी, उत्कृष्ट साहित्य के बारे में अपनी धारणा बिगडने न दें।
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भारत का युवा किसका अनुसरण करे-जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, नारायण दत्त तिवारी या अभिषेक मनु सिंहवी का? रही सही कसर हमारी फिल्मों, टीवी सिरियल्स, इन्टरनेट और घटिया साहित्य ने पूरी कर दी।
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बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता
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घटिया साहित्य का जिक्र करते हुये हमें यह भी न भूलना चाहिये कि आज प्रिंटिंग, प्रकाशन, पुस्कतक-व्यवसाय, साहित्य, शिक्षा-उसके पूर्णकालिक शिक्षक और पूर्णकालिक छात्र-इन सबने मिलकर साहित्य लिखने और लिखाने तथा साहित्य पढ़ने और पढ़ाने को हमारी सभ्यता का एक अनिवार्य अंग बना दिया है।
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चंदन पाँडे के ‘ नया ' में क्या नया है? हिंदी की अगर बात छोड़ ही दें तो अंग्रेजी के चर्चित-पुरस्कृत किंतु घटिया साहित्य से प्रेरित कहानी के समरूप कहा जाए या समतुल्य? विश्वनाथ जी ने गलत नहीं कहा कि सब एक जैसे रच रहे हैं, अपवाद होते हैं लेकिन चंदन पाँडे खुद कह रहे हैं कि वो अपवाद नहीं हैं।
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साहित्य के लिये अपनी कसौटी बताते हुये श्रीलाल शुक्ल जी ने कैसे अच्छी किस्म से घटिया साहित्य से बचने की सलाह दी है यह गौरतलब और शायद अनुकरणीय भी! यह लेख सन 1983 में आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हुआ था और श्रीलाल शुक्ल जी के 81 वें जन्मदिन के पर दिल्ली में आयोजित अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हुई पुस्तक श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित है।
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बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता, बहुचर्चित आदर्शों को स्वत: सिद्ध और स्थायी मानवीय मूल्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहता है और यथार्थ के विभिन्न आयामों को न उघाड़कर यथार्थ की साहित्य में जो पिटी हुई रूढियां बन रही हैं, उन्हीं को हम पर आरोपित करता है।