बरसों का साथ बहुत कुछ देकर सदा के लिए झपट लेता है आपसी संवाद स्थायी संबंधों की सामाजिक रुपरेखा जीवित रहती है पर शब्द खो जाते है शेष रह जाती है औपचारिकता संबंधों को निभाने की मन की नहीं जगत की सुनने-सुनाने की निश्चित हो जाती हैं परिसीमायें पसर जाते हैं अनचाहे सन्नाटे जो भेद जाते हैं कहीं भीतर तक सिमट जाते हैं ह्रदय के यथार्थ भाव जन्म-जन्मान्तर के साथ में जीवन चलनशील रहता है और भावनाएं गतिहीन हो जाती हैं