आगे वर्णन है-जग भर की माधुरी अरुण अधरों में धरी हुई-सी, आंखों में वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई-सी! दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप अपना देखा करती है, वह सौंदर्य, कला जिसका सपना देखा करती है।
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फाइल रख सेक्शन अफसर वापस जाने के लिए मुड़ा तो भर्राये स्वर में सुधांशु बोला, '' मिस्टर वर्मा, किसी से कहें कि मेरा पानी का जग भर दे... । '' '' सर, जग मुझे दे दीजिए।
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है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर को? प्रण से डिगा आपको दूँगा क्या उत्तर जग भर को? सब कोसेंगें मुझे कि मैने पुण्य मही का लूटा, मेरे ही कारण अभंग प्रण महाराज का टूटा. '
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माला, काफी अच्छा topic उठाया है आपने किन्तु बुरे इंसान की एक अच्छाई ही सब कुछ नहीं होती ठीक उसी तरह जैसे रावन इतना योग्य होने के बाद भी अपनी एक बुरे के कारण जग भर मैं बुराई का पात्र बना.
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ऐसा कोई मिला ना जग में जिसको मन का दर्द सुनाऊं जग भर की वेदना लिए मैं किसको गहरी टीस दिखाऊँ जिसको समझा दोस्त वही तिल तिल कर देता ज़हर मुझे ऐसी चोट लगी है दिल पर सारा जग बंजर लगता है!
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ब्लॉगर्स सावधान!!! कुछ भी हो सकता है...खुशदीप बताते हैं कि पुराने ज़माने में हिंदुस्तान में किसी ने चाय का नाम तक नहीं सुना था...ईस्ट इंडिया कंपनी आई...अंग्रेज़ आए...लोगों को सड़कों-चौराहों-नुक्कड़ पर मुफ्त में जग भर भर के चाय पिलाई जाने लगी...खालिस...
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फाइल रख सेक्शन अफसर वापस जाने के लिए मुड़ा तो भर्राये स्वर में सुधांशु बोला, “मिस्टर वर्मा, किसी से कहें कि मेरा पानी का जग भर दे...।” “सर, जग मुझे दे दीजिए।” वर्मा ने हाथ बढ़ाया। “आप नहीं.......।” “कोई बात नहीं सर...मैं पानी मंगवा देता हूं।” सुधांशु ने जग वर्मा की ओर बढ़ा दिया।
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-आपके साथ यही हाल है, आपके साथ कोई है या नहीं इस बात का फर्क नहीं, खुद देखिये आपके जग भर पीने की भी तारीफ हो रही है, इनमें से किसी के बेटे जैसा कोई ऎसी फोटो जड़ देता तब???? कहीं ये संस्कृति, देशकाल के कारण तो नहीं?
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दुनिया के सभी धार्मिक ग्रंथों में लगभग यह बताया गया है कि पूरे जग भर की मानव जाति एक ही माता-पिता की संतान है सारी सृष्टि हिन्दू धर्मानुसार मनु और सतरूपा की संतान है और आप भी अपनी प्रतिक्रिया में लिखते है कि जाति और गोत्र से ऊपर उठकर गाँव की सारी लड़कियाँ बहन हैं.
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सहसा स्वचेत हुए हम कि लहरायी अजीब / जग भर को, जी में भर लेने की अकुलाहट / “ मैं क्या न करूँ, क्या कर डालूँ, सब कुछ कर लूँ ” के भावों की अपने ही कानों में आहट!! ”-मालव-निर्झर की झर-झर कंचन-रेखा: रचनावली खण्ड-2, पृष्ठ-191 से