संसार में सारे गृहस्थ शरीर स्तर के ; सारे के सारे स्वाध्यायी जीव (रूह-सेल्फ) स्तर के ; सारे के सारे योगी-साधक-आध्यात्मिक-अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मागण आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य-ज्योति-ज्योति विन्दु रूप शिव) स्तर के ; और तत्त्वज्ञानी-तात्त्विक-तत्त्ववेत्ता परमतत्त्वम् स्तर के होते हैं ।
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हमारी क्या शक्ति है कि उन महापुरूषों का, गुरूओं का बयान करे? वे तत्त्ववेत्ता पुरूष, वे ज्ञानवान पुरूष जिसके जीवन में निहार लेते हैं, ज्ञानी संत जिसके जीवन में जरा-सी मीठी नजर डाल देते हैं उसका जीवन मधुरता के रास्ते चल पड़ता है।
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भावार्थ:-हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखंड, अनंत और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिन्तन किया करते हैं॥ 2 ॥
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भारतीय तत्त्ववेत्ता यह मानते हैं कि जो सिद्धांत अथवा विचार आचरण में नहीं आ सकते, वे उपयोगी नहीं हैं और जो धर्म व्यवहार में नहीं आता, जिससे हमारा दैनिक जीवन और समस्याएँ हल नहीं होती, जीवन सुख-शान्तिमय नहीं बनता, हम उसे '' धर्म '' नहीं कह सकते ।।
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उसके सम्बन्ध में श्री अरविन्द कहते हैं-“दर्शन कवि की एक विशेष शक्ति है, जिस प्रकार विवेक तत्त्ववेत्ता का विशेष वरदान है और विश्लेषण वैज्ञानिक की स्वाभाविक देन है।” यही दर्शन की शक्ति, अपने अनुभव के सत्य का दर्शन अथवा अतिमानस सत्य, जो कि प्रतीक के रूप में प्रकट होता है, कवि को आत्म-प्रकाशन की शक्ति प्रदान करता है।
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गायत्री का तत्त्वज्ञान और उसके अनुग्रह का रहस्य बताते हुए महर्षि मौदगल्य ने विस्तारपूर्वक यही समझाया है कि चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से संयम और परमार्थ की दृष्टि से व्यक्तित्व को पवित्र बनाने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ही गायत्री के तत्त्ववेत्ता हैं और उन्हीं को वे सब लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन गायत्री की महिमा एवं फलश्रुति का वर्ण करते हुए स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया गया है ।।
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आपने किसी ब्रह्मनिष्ठ तत्त्ववेत्ता महापुरुष की शरण ग्रहण की या नहीं? अनुभवनिष्ठ आचार्य का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन को सार्थक बनाने का अंतःकरण का निर्माण करने का, जीवन का सूर्य अस्त होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात करने का प्रयत्न किया है कि नहीं? जिसे अपने जीवन में सच्चे संत, महापुरुष का संग प्राप्त हो चुका हो उसके समान सौभाग्यवान पृथ्वी पर और कोई नहीं है ।
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इन कथावाचक-शास्त्री लोगों को कौन समझावे कि योग-सिध्द सक्षम अध्यात्मवेत्ता (गुरु) ही बनने-बनाने का पद नहीं होता, और जब अध्यात्म का पिता रूप ' तत्त्वज्ञान ' और आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह के भी पितारूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान की प्राप्ति ही पूर्णावतार रूप तत्त्ववेत्ता (सदगुरु) के वगैर सम्भव नहीं है, तब उस परमपद पर मनमाना अपने आपको घोषित करना-लीला पुरुष बनना-इसे झूठा और भ्रामक मात्र न कहकर घोर हास्यास्पद भी कहा जाय तो भी कम ही है क्योंकि भगवान और भगवदवतार कोई बनने-बनाने का विषय-वस्तु-पद नहीं होता है!